● यदि व्यक्ति बीमार पड़ जाता है तो उसे किसी न किसी दवा का सहारा तो
लेना ही पड़ता है। फिर भी दवा सीमित खानी चाहिए, अन्धाधुंध नहीं। वह भी तब
जब जरूरी है।
1) जरा सी तकलीफ हुई नहीं कि हम पहुंच जाते हैं डाक्टर के पास। हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। उस कारणों को अपने व्यवहार से निकाल फेंकना चाहिए, जिनसे रोग हुआ। डाक्टर तक पहुंचने की नौबत गंभीर अवस्था में हो।
1) जरा सी तकलीफ हुई नहीं कि हम पहुंच जाते हैं डाक्टर के पास। हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। उस कारणों को अपने व्यवहार से निकाल फेंकना चाहिए, जिनसे रोग हुआ। डाक्टर तक पहुंचने की नौबत गंभीर अवस्था में हो।
2) यह बात मान लेनी
चाहिए कि हम प्रयत्न कर, अपने आहार में जरूरी सुधार व परिवर्तन कर,
उपयुक्त व्यायाम का सहारा लेकर अपने रोग को उखाड़ सकते हैं। इस प्रकार के
प्रयत्न से यदि रोग मुक्त हो जाएंगे तो फिर से यह नहीं उभर सकेगा। इसे जड़
से उखाड़ फेंकना लक्ष्य हो आपका।
3) यह भी पता चला है कि बहुत से रोगों का मुख्य कारण अधिक कब्ज होना या पाचन शक्ति में गड़बड़ हो जाना या फिर पेट में कोई विकार घर कर जाना। यदि इस ओर हम सदा ध्यान देते रहें तो रोग होंगे ही नहीं।
"व्यस्त रहें स्वस्थ रहें मस्त रहें"
4) मन
नाक, कान, आँख ये सब शरीर के अंग हैं। जो समय के साथ बदल जाते हैं। किन्तु मन की सुंदरता समय के साथ नहीं बदलती बल्कि और निखरती है। इसलिए किसी को परखना हो तो उसके मन को परखो। क्योंकि मन ही हमारा मित्र है और मन ही हमारा शत्रु होता है। मन का स्वभाव है हमेशा चंचल रहना। हमारा मन चंचल होने की वजह से एक जगह नहीं टिकता। लेकिन अभ्यास से इसको वश में किया जा सकता है।
स्वयं विचार कीजिए।
3) यह भी पता चला है कि बहुत से रोगों का मुख्य कारण अधिक कब्ज होना या पाचन शक्ति में गड़बड़ हो जाना या फिर पेट में कोई विकार घर कर जाना। यदि इस ओर हम सदा ध्यान देते रहें तो रोग होंगे ही नहीं।
"व्यस्त रहें स्वस्थ रहें मस्त रहें"
4) मन
नाक, कान, आँख ये सब शरीर के अंग हैं। जो समय के साथ बदल जाते हैं। किन्तु मन की सुंदरता समय के साथ नहीं बदलती बल्कि और निखरती है। इसलिए किसी को परखना हो तो उसके मन को परखो। क्योंकि मन ही हमारा मित्र है और मन ही हमारा शत्रु होता है। मन का स्वभाव है हमेशा चंचल रहना। हमारा मन चंचल होने की वजह से एक जगह नहीं टिकता। लेकिन अभ्यास से इसको वश में किया जा सकता है।
स्वयं विचार कीजिए।