अनन्तमूल समुद्र के किनारे वाले प्रदेशों से लेकर भारत के सभी पहाड़ी प्रदेशों में बेल (लता) के रूप में प्रचुरता से मिलती है। यह सफेद और काली, दो प्रकार की होती है, जो गौरीसर और कालीसर के नाम से आमतौर पर जानी जाती है। संस्कृत में इसे श्वेत सारिवा और कृश्ण सारिवा कहते हैं। इसकी बेल पतली, बहुवर्षीय, जमीन पर फैलने वाली, वृक्ष पर चढने वाली और 5 से 15 फुट लंबी होती है। काले रंग की चारों ओर फैली शाखाएं उंगली के समान मोटी होती हैं, जिन पर भूरे रंग के रोम लगे होते हैं। पत्ते एक दूसरे के सामने अंडाकार, आयताकार, 1 से 4 इंच लंबे सफेद रंग की धारियों से युक्त होते हैं, जिन्हें तोड़ने पर दूध निकलता है। इसके फूल छोटे, सफेद रंग के, हरापन लिए, अंदर से बैगनी रंगयुक्त, गंध रहित मंजरियों में लगते हैं। लौंग के आकार के पांच पंखुड़ीयुक्त फूल शरद ऋतु में लगते हैं। छोटी, पतली अनेक फलियां अक्टूबर-नवम्बर माह में लगती हैं, जो पकने पर फट जाती हैं। इसकी जड़ से कपूर मिश्रित चंदन की-सी गंध आती है। सुंगधित जड़ें ही औषधीय कार्य के लिए श्रेष्ठ मानी जाती हैं। बेल (लता) की ताजा जड़ें तोड़ने पर दूध निकलता है।
विभिन्न भाषाओं में नाम :
भाषा नाम
संस्कृत सारिवा, अनन्ता, गोपी, गोप कन्या।
हिंदी अनन्तमूल।
मराठी श्वेत उपलसरी ।
गजराती उपलसरी, कारडियों, कुंडेर।
बंगाली श्यामलता, अनन्तमूल, सरिवा
पंजाबी अनन्तमूल
अंग्रेजी हेमिडेस्मस, इंडियन- सरसापरिला
लैटिन हेमिडेस्मस इंडिकस
गुण :
आयुर्वेदिक मतानुसार अनन्तमूल मधुर, शीतल, स्निग्ध, भारी, कड़वी, मीठी, तीखी, सुगंधित, वीर्यवर्द्धक (धातु का बढ़ना), त्रिदोषनाशक (वात, पित्त और कफ), खून को साफ करने वाला (रक्तशोधक), प्रतिरोधक तथा शक्ति बढ़ाने वाली होती है। यह स्वेदजनक (पसीना लाने वाला), बलकारक, मूत्र विरेचक (पेशाब लाने वाला), भूखवर्द्धक, त्वचा रोगनाशक, धातुपरिवर्तक होने के कारण अरुचि,बुखार, खांसी, रक्तविकार (खून की खराबी), मंदाग्नि (अपच), जलन, शरीर की दुर्गंध, खुजली, आमदोष, श्वांस, विष, घावऔर प्यास में गुणकारी है।
यूनानी मतानुसार अनन्तमूल शीतल और तर होती है। पसीना लाकर रक्तशोधन (खून को साफ करना), पेशाब का बनना बढ़ाकर शारीरिक दुर्गंध दूर करना इसका विशेष गुण हैं।
वैज्ञानिक मतानुसार अनन्तमूल का रासायनिक विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि इसमें 0.22 प्रतिशत उड़नशील तेल होता है, जिसका 80 प्रतिशत भाग सुगंधित पैरानेथाक्सी सेलिसिलिक एल्डीहाइड कहलाता है। इसके अलावा बीटा साइटो स्टीरॉल, सैपोनिन, राल, रेसिन अम्ल, एल्फ और बीटा एसाइरिन्स, ल्यूपियोल, टैनिन्स, रेसिन अम्ल, ग्लाइकोसाइड्स, टेट्रासाइक्लिक ट्राई स्पीन अल्कोहल और कीटोन्स अल्प मात्रा में मिलते हैं। इनसे त्वचा के द्वारा रक्त वाहिनियों का विकास होकर रक्त का संचार निर्बाध गति से होता है। रक्त के ऊपर इस औषधि की क्रियाशीलता अधिक देखी गई है।
स्वरूप :
अनन्तमूल की शाखाएं गोल और चिकनी होती हैं। इसकी पत्तियां अभिमुख क्रम में स्थित, भिन्न-भिन्न आकर की गाढ़े हरे रंग की होती हैं तथा बीजों में सफेद रंग की धारियां होती हैं। इसकी शाखा सफेद तथा सुगंधित होती है।
मात्रा :
अनन्तमूल की जड़ का चूर्ण 3 से 6 ग्राम। पिसी हुई लुग्दी (पेस्ट) 5 से 10 ग्राम।
विभिन्नरोगोंमेंप्रयोग:
1. सिरदर्द:
*.अनन्तमूल की जड़ को पानी में घिसने से बने लेप को गर्म करके मस्तक पर लगाने से पीड़ा दूर होती है।
*.लगभग 6 ग्राम अनन्तमूल को 3 ग्राम चोपचीनी के साथ खाने से सिर का दर्द दूर हो जाता है।
2. बच्चोंकासूखारोग:अनन्तमूल की जड़ और बायबिडंग का चूर्ण बराबर की मात्रा में मिलाकर आधे चम्मच की मात्रा में सुबह-शाम सेवन कराने से बच्चे का स्वास्थ्य सुधर जाता है।
3. पथरीऔरपेशाबकीरुकावट:अनन्तमूल की जड़ के 1 चम्मच चूर्ण को 1 कप दूध के साथ 2 से 3 बार पीने से पेशाब की रुकावट दूर होकर पथरी रोग में लाभ मिलता है। मूत्राशय (वह स्थान जहां पेशाब एकत्रित होता है) का दर्द भी दूर होता है।
4. रक्तशुद्धिहेतु(खूनसाफकरनेकेलिए):100 ग्राम अनन्तमूल का चूर्ण, 50 ग्राम सौंफ और 10 ग्राम दालचीनी मिलाकर चाय की तरह उबालें, फिर इसे छानकर 2-3 बार नियमित रूप से पीने से खून साफ होकर अनेक प्रकार के त्वचा रोग दूर होंगे।
5. मुंहकेछाले:शहद के साथ अनन्तमूल की जड़ का महीन चूर्ण मिलाकर छालों पर लगाएं।
6. घाव:
*.अनन्तमूल का चूर्ण घाव पर बांधते रहने से वह जल्द ही भर जाता है।
*.घाव पर अनन्तमूल पीसकर लेप करने से लाभ होता है।
7. पीलिया(कामला) :
*.1 चम्मच अनन्तमूल का चूर्ण और 5 कालीमिर्च के दाने मिलाकर एक कप पानी में उबालें। पानी आधा रह जाए, तब छानकर इसकी एक मात्रा नियमित रूप से एक हफ्ते तक सुबह खाली पेट पिलाने से रोग दूर हो जाएगा।